Thursday, 13 October 2016

लक्ष्य के लिए साधना


एक बार एक छात्र ने अपने गुरू से कहा कि वो संसार का सबसे अच्छा धनुर्धर बन चुका है। अब उसके लिए लक्ष्य को भेदना बहुत आसान हो गया है। दुनिया का कोई भी लक्ष्य उसके लिए मुश्किल नहीं। गुरू ने उसे दूर एक लक्ष्य दिखलाया और कहा कि उसे भेद कर दिखलाओ। छात्र ने पल भर में लक्ष्य को भेद दिया। लक्ष्य को भेद कर वो गुरू की ओर गुरूर भरी निगाहों से देखा और पूछा, गुरू जी कोई कमी रह गई हो तो बताएं। गुरू ने उसे इशारा किया कि तुम मेरे पीछे-पीछे आओ। छात्र को लेकर वो दूर पहाड़ी पर पहुंच गए। वहां एक टीले पर गुरू खुद खड़े हो गए और दूसरे टीले पर छात्र को खड़ा कर दिया। उस टीले पर ठीक से खड़ा होने की जगह नहीं थी। पांव ठीक से जम नहीं पा रहा था। पर गुरू ने छात्र से कहा कि यहां खड़े होकर तुम उस वृक्ष पर निशाना लगाओ। छात्र के पांव कांप रहे थे। उसे लगातार डर लग रहा था कि कहीं वो इस टीले से गिर न जाए। किसी तरह खुद को संभालते हुए उसने निशाना साधा, पर निशाना नहीं लगा। गुरू ने धनुष उठाया और क्षण भर में लक्ष्य को भेद दिया।” ज़िंदगी में हर जगह अपने काम को पूरा करने के लिए आसान परिस्थिति मिले, ज़रूरी तो नहीं। आसान परिस्थिति में तो कोई भी अपना काम कर सकता है। समतल ज़मीन पर खड़े होकर लक्ष्य को भेदना और बात है। उंचे टीले पर खड़े होकर लक्ष्य को भेदने वाला ही धनुर्धर होता है। जो पांव के कंपन पर अपना नियंत्रण रखना जानता है, वही सही मायने में धनुर्धर कहलाने का हक रखता है। छात्र ने विद्या सीख ली थी, लेकिन परिस्थिति पर नियंत्रण करना उसे नहीं आया था। गुरू ने परिस्थिति पर नियंत्रण करना सीख लिया था, इसलिए वो लक्ष्य को भेद पाए। यह ठीक है कि आईआईटी में पढ़ने का माहौल है, पर असल में यह माहौल मन के भीतर होना चाहिए। मैं आज तक घर में पढ़ता रहा हूं। बारहवीं तक तो सारे विषय मम्मी ने ही पढ़ाए हैं। फिर मैं ऐसा कैसे सोचने लगा कि परिस्थितियां मुझे पढ़ा रही है। पढ़ना मुझे है। समझना मुझे है। वो तो सार्थक तभी होगा, जब मैं किसी टीले पर एक पांव पर खड़े होकर भी कर पाऊं। जो विपरित परिस्थिति में भी निशाना साध सकते हैं, वही धनुर्धर होते हैं। आम परिस्थिति हमें निशांची बना सकते हैं, धनुर्धर नहीं।

No comments:

Post a Comment